Sunday, August 8, 2010

यूनिसेफ के सहयोग से दलित आर्थिक आदोलन

यूनिसेफ के सहयोग से दलित आर्थिक आदोलन और नेशनल कैंपेन आन दलित ह्यूमन राइट्स ने मिलकर एक अध्ययन किया है। यह अध्ययन स्कूलों में दलित बच्चों की स्थिति का जायजा लेने के मकसद से किया गया। इसके नतीजे बेहद चौंकाने वाले हैं।
इस रपट से एक बात तो बिल्कुल साफ हो जाती है कि अभी भी भारत का समाज दलितों के प्रति घृणा का भाव ही रखता है। इस रपट में जिन-जिन राच्यों का अध्ययन किया गया, उन सब राच्यों के स्कूली बच्चों के साथ स्कूल में भेदभाव बस इसलिए किया गया, क्योंकि वे दलित थे। इस रपट में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि भेदभाव की वजह से बड़ी संख्या में दलित बच्चे अपने आगे की पढ़ाई बरकरार नहीं रख पाते।
इस रपट को चार राच्यों के 94 स्कूलों की हालत का अध्ययन करके तैयार किया गया है। दलित बच्चों के साथ हुए भेदभाव के उदाहरणों से यह रपट भरी पड़ी है। उन उदाहरणों के जरिए एक खास तरह की मानसिकता में जकड़े समाज को समझा जा सकता है। इस रपट को तैयार करने वाले राजस्थान के एक स्कूल में गए। वहा जाकर उन्होंने पूछा कि किस बच्चे को यहा के शिक्षक अक्सर पीटते हैं और क्यों पीटते हैं? इस सवाल का जवाब तुरंत वहा मौजूद बच्चों ने दिया। यह जवाब ऐसा है, जो खुद को सभ्य कहने वाले समाज का असली चेहरा दिखाता है। बच्चों ने इस सवाल के जवाब में तुरंत एक ऐसे बच्चे की ओर इशारा किया, जो दलित था। उन बच्चों ने यह भी कहा कि दलित होने के नाते वह निशाने पर रहता है।
यह मामला केवल राजस्थान का नहीं है। दूसरे राच्यों में भी इसी तरह की स्थिति है। बिहार का उदाहरण लिया जा सकता है। इस राच्य में दलितों के नाम पर सियासत करने की पुरानी परंपरा रही है। दलितों के रहनुमा होने का राग अलापने वाले लालू प्रसाद यादव ने इस राच्य पर 15 साल तक राज इसी तरह की राजनीति करके किया। अभी इस राच्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं। वे भी दलितों के नाम पर सियासत करने से बाज नहीं आते, पर इस राच्य के स्कूलों की हालत यह है कि स्कूल के शिक्षक दलित बच्चों के अभिभावकों से इस बात की शिकायत करते हैं कि उनके बच्चे साफ कपड़े नहीं पहनते और कक्षा में उनके शरीर से बदबू आती है।
बिहार की ही एक दलित छात्रा ने बताया कि शिक्षक हम लोगों यानी दलित बच्चों पर पूरा ध्यान नहीं देते। हमें जमीन पर बैठाया जाता है।
हालात की बदहाली का आलम यह है कि मिड-डे मील में मिलने वाले भोजन में भी दलित छात्रों के साथ भेदभाव बरता जा रहा है। उन्हें जो खाना मिल रहा है, उसकी गुणवत्ता सही नहीं होती है। इसके अलावा दलित बच्चों को भरपेट भोजन भी मिड-डे मील योजना के तहत नहीं मिल रहा है। इस तरह की शिकायत कई बच्चों ने की।
बिहार के दलित बच्चों ने यह भी शिकायत की कि उन्हें कक्षा में सबसे पीछे बैठने को कहा जाता है। इसके अलावा शिक्षक उनका होमवर्क भी नहीं जाचते हैं।
दलित बच्चों के साथ स्कूली स्तर पर हो रहे भेदभाव की रपट तैयार करने वाले जब उत्तर प्रदेश गए तो वहा के बच्चों ने कई तरह की शिकायतें कीं। दलित बच्चों ने बताया कि उन्हें स्कूल के शौचालय का इस्तेमाल करने से रोका जाता है। उत्तर प्रदेश में दलित बच्चों को कई ऐसे काम दिए जाते हैं, जिसके बारे में यह माना जाता है कि उसे कुछ खास जाति के लोग ही कर सकते हैं।
इसके अलावा इस रपट में बताया गया है कि उत्तर प्रदेश के कई स्कूलों में बच्चों से सिर्फ दलित होने के कारण स्कूल परिसर की सफाई करवाने और पानी भरवाने का काम करवाया जा रहा है।
स्कूलों में दलित बच्चों के साथ भेदभाव के कई दुष्परिणाम स्वाभाविक तौर पर सामने आते हैं। जब इन बच्चों के प्रति शिक्षकों का रवैया ही भेदभावपूर्ण रहेगा तो स्वाभाविक है कि उस स्कूल के गैर-दलित बच्चों के मन में भी दलित बच्चों के प्रति एक खास तरह का पूर्वाग्रह पैदा होगा। वहीं दूसरी तरफ दलित बच्चे हीनभावना से ग्रस्त होते जाएंगे। ऐसा हो भी रहा है। इसका परिणाम बड़ा भयानक हो रहा है।
पहली बात तो यह कि भेदभाव की वजह से शुरुआत से ही दलित बच्चों को अवसरों की असमानता की समस्या से जूझना पड़ता है। आगे चलकर यही उन्हें शिक्षा से बाहर कर देता है। जो किसी तरह अपनी शिक्षा बरकरार रख भी पाते हैं, उनके मन में भी तमाम नकारात्मक बातें घर कर जाती हैं।
खैर, इस रपट में यह भी बताया गया है कि ज्यादातर स्कूल वैसी जगहों पर हैं, जो उच्च जाति के लोगों के दबदबे वाला क्षेत्र है। बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में खास तौर पर ऐसी स्थिति है। इस रपट में यह अनुमान लगाया गया है कि दलित बच्चों को स्कूल तक पहुंचने के लिए औसतन आधे घटे का सफर करना पड़ता है।
महाराष्ट्र में दलित बच्चों को स्कूल तक पहुंचने के लिए बहुत ज्यादा सफर नहीं करना पड़ता है। पर यहा भी ज्यादातर स्कूल उन्हीं क्षेत्रों में हैं, जहा उच्च जाति वालों का दबदबा है।
दरअसल, स्कूलों में भेदभाव होना कई तरह के सवाल खडे़ करता है। पहली बात तो यह कि अगर स्कूलों में भेदभाव हो रहा है तो कहीं न कहीं शिक्षा व्यवस्था में कोई गंभीर खामी है। अपने यहा स्कूलों को विद्या का मंदिर माने जाने की परंपरा रही है। पर सही मायने में वैसे जगह को मंदिर कहना सही होगा क्या, जहा सिर्फ किसी खास जाति में पैदा होने के आधार पर भेदभाव हो?
वहीं दूसरी तरफ शिक्षकों की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। भारत में तो शिक्षकों को बेहद सम्मान दिया जाता रहा है। पर अगर उनका बर्ताव बच्चों में भेदभाव वाला हो तो यह बेहद चिंताजनक है। शिक्षक की नजर में स्कूल में पढ़ने वाला हर बच्चा समान होना चाहिए। तब ही वह सही ढंग से अपने दायित्व का निर्वहन कर पाएगा। पर अगर उसका रवैया ही भेदभाव वाला हो तो जाहिर है कि वह समाज के साथ अन्याय कर रहा है। स्कूली शिक्षा के दौरान बच्चों के मन में जो बीज पड़ते हैं, उसका असर उनकी पूरी जिंदगी पर होता है। इसलिए भेदभाव को खत्म करने की शुरुआत तो इसी स्तर से होनी चाहिए और इसमें शिक्षकों की बड़ी अहम भूमिका है।

Wednesday, August 4, 2010

गांधीजी और दलित भारत-जागरण

अनुसूचित जाति औद्योगिकीकरण २००२-२००८ भारत में दलितों के अधिकारों की मांग आजादी से पहले से ही शुरू हो गई थी। जिसका सीधा सा कारण था अंग्रेजी शिक्षा और शासन। यद्यपि अंग्रेज देश की सामाजिक संरचना में किसी भी तरह का हस्तक्षेप पसंद नहीं करते थे इसके बावजूद मानवीय अधिकारों के संदर्भ में उनकी विचारधाराएं इतनी प्रबल थीं कि उन्हें दलितों के अधिकारों के संदर्भ में सोचने को मजबूर होना पड़ा। भारत में दलित आंदोलन की शुरूआत ज्योतिराव गोविंदराव फुले के नेतृत्व में हुई। ज्योतिबा जाति से माली थे और समाज के ऐसे तबके से संबध रखते थे जिन्हे उच्च जाति के समान अधिकार नहीं प्राप्त थे। इसके बावजूद ज्योतिबा फूले ने हमेशा ही तथाकथित 'नीची' जाति के लोगों के अधिकारों की पैरवी की। भारतीय समाज में ज्योतिबा का सबसे दलितों की शिक्षा का प्रयास था। ज्योतिबा ही वो पहले शख्स थे जिन्होंन दलितों के अधिकारों के साथ-साथ दलितों की शिक्षा की भी पैरवी की। इसके साथ ही ज्योति ने महिलाओं के शिक्षा के लिए सहारनीय कदम उठाए। भारतीय इतिहास में ज्योतिबा ही वो पहले शख्स थे जिन्होंने दलितों की शिक्षा के लिए न केवल विद्यालय की वकालत की बल्कि सबसे पहले दलित विद्यालय की भी स्थापना की। ज्योति में भारतीय समाज में दलितों को एक ऐसा पथ दिखाया था जिसपर आगे चलकर दलित समाज और अन्य समाज के लोगों ने चलकर दलितों के अधिकारों की कई लड़ाई लडी। यूं तो ज्योतिबा ने भारत में दलित आंदोलनों का सूत्रपात किया था लेकिन इसे समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का काम बाबा साहब अम्बेडकर ने किया। एक बात और जिसका जिक्र किए बिना दलित आंदोलन की बात बेमानी होगी वो है बौद्ध धर्म। ईसा पूर्व 600 ईसवी में ही बौद्घ धर्म ने समाज के निचले तबकों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। बुद्घ ने इसके साथ ही बौद्ध धर्म के जरिए एक सामाजिक और राजनीतिक क्रांति लाने की भी पहल की। इसे राजनीतिक क्रांति कहना इसलिए जरूरी है क्योंकि उस समय सत्ता पर धर्म का आधिपत्य था और समाज की दिशा धर्म के द्वारा ही तय की जाती थी। ऐसे में समाज के निचले तलबे को क्रांति की जो दिशा बुद्घ ने दिखाई वो आज भी प्रासांगिक है। भारत में चार्वाक के बाद बुद्घ ही पहले ऐसे शख्स थे जिन्होंने ब्राह्मणवाद के खिलाफ न केवल आवाज उठाई बल्कि एक दर्शन भी दिया। जिससे कि समाज के लोग बौद्घिक दासता की जंजीरों से मुक्त हो सकें।
यदि समाज के निचले तबकों के आदोलनों का आदिकाल से इतिहास देखा जाए तो चार्वाक को नकारना भी संभव नहीं होगा। यद्यपि चार्वाक पर कई तरह के आरोप लगाए जाते हैं इसके बावजूद चार्वाक वो पहला शख्स था जिसने लोगों को भगवान के भय से मुक्त होने सिखाया। भारतीय दर्शन में चार्वाक ने ही बिना धर्म और ईश्वर के सुख की कल्पना की। इस तर्ज पर देखने पर चार्वाक भी दलितों की आवाज़ उठाता नज़र आता है.....खैर बात को लौटाते हैं उस वक्त जिस वक्त दलितों के अधिकारों को कानूनी जामा पहनाने के लिए डॉ. अंबेडकर ने लड़ाई शुरू कर दी थी...वक्त था जब हमारा देश भारत ब्रिटिश उपनिवेश की श्रेणी में आता था। लोगों के ये दासता का समय रहा हो लेकिन दलितों के लिए कई मायनों में स्वर्णकाल था।
आज दलितों को भारत में जो भी अधिकार मिले हैं उसकी पृष्ठभूमि इसी शासन की देन थी। यूरोप में हुए पुर्नजागरण और ज्ञानोदय आंदोलनों के बाद मानवीय मूल्यों का महिमा मंडन हुआ। यही मानवीय मूल्य यूरोप की क्रांति के आर्दश बने। इन आर्दशों की जरिए ही यूरोप में एक ऐसे समाज की रचना की गई जिसमें मानवीय मूल्यों को प्राथमिकता दी गई। ये अलग बाद है कि औद्योगिकीकरण के चलते इन मूल्यों की जगह सबसे पहले पूंजी ने भी यूरोप में ली...लेकिन इसके बावजूद यूरोप में ही सबसे पहले मानवीय अधिकारों को कानूनी मान्यता दी गई। इसका सीधा असर भारत पर पड़ना लाजमी था और पड़ा भी। इसका सीधा सा असर हम भारत के संविधान में देख सकते हैं। भारतीय संविधान की प्रस्तावना से लेकर सभी अनुच्छेद इन्ही मानवीय अधिकारों की रक्षा करते नज़र आते हैं। भारत में दलितों की कानूनी लड़ाई लड़ने का जिम्मा सबसे सशक्त रूप में डॉ. अम्बेडकर ने उठाया। डॉ अम्बेडकर दलित समाज के प्रणेता हैं। बाबा साहब अंबेडकर ने सबसे पहले देश में दलितों के लिए सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों की पैरवी की। साफ दौर भारतीय समाज के तात्कालिक स्वरूप का विरोध और समाज के सबसे पिछडे़ और तिरस्कृत लोगों के अधिकारों की बात की। राजनीतिक और सामाजिक हर रूप में इसका विरोध स्वाभाविक था। यहां तक की महात्मा गांधी भी इन मांगों के विरोध में कूद पड़े। बाबा साहब ने मांग की दलितों को अलग प्रतिनिधित्व (पृथक निर्वाचिका) मिलना चाहिए यह दलित राजनीति में आज तक की सबसे सशक्त और प्रबल मांग थी। देश की स्वतंत्रता का बीड़ा अपने कंधे पर मानने वाली कांग्रेस की सांसें भी इस मांग पर थम गई थीं। कारण साफ था समाज के ताने बाने में लोगों का सीधा स्वार्थ निहित था और कोई भी इस ताने बाने में जरा सा भी बदलाव नहीं करना चाहता था। महात्मा गांधी जी को इसके विरोध की लाठी बनाया गई और बैठा दिया गया आमरण अनशन पर। आमरण अनशन वैसे ही देश के महात्मा के सबसे प्रबल हथियार था और वो इस हथियार को आये दिन अपनी बातों को मनाने के लिए प्रयोग करते रहते थे। बाबा साहब किसी भी कीमत पर इस मांग से पीछे नहीं हटना चाहते थे वो जानते थे कि इस मांग से पीछे हटने का सीधा सा मतलब था दलितों के लिए उठाई गई सबसे महत्वपूर्ण मांग के खिलाफ में हामी भरना। लेकिन उन पर चारों ओर से दबाव पड़ने लगा.और अंततः पूना पैक्ट के नाम से एक समझौते में दलितों के अधिकारों की मांग को धर्म की दुहाई देकर समाप्त कर दिया गया। इन सबके बावजूद डॉ.अंबेडकर ने हार नहीं मानी और समाज के निचले तबकों के लोगों की लड़ाई जारी रखी। अंबेडकर की प्रयासों का ही ये परिणाम है कि दलितों के अधिकारों को भारतीय संविधान में जगह दी गई। यहां तक कि संविधान के मौलिक अधिकारों के जरिए भी दलितों के अधिकारों की रक्षा करने की कोशिश की गई।

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